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पैसा एवं पुरूषत्व: ग्रामीण परिवारों में बदलती लैंगिक भूमिकाएं

By संजीव फंसालकर
Published March 2, 2020
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9 Min Read
भारत भर में, गाँवों में बेरोजगार पुरुषों के समूह मिलना असामान्य बात नहीं है (छायाकार-माइकल फोली)
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हमारे जैसे पितृसत्तात्मक समाज में, परंपरागत रूप से ऐसा माना जाता है कि घर में पुरुष के हाथ में नियंत्रण इसलिए होता है, क्योंकि वे परिवार का भरण-पोषण करते हैं, उसकी रक्षा करते हैं और जरूरी होने पर दंड देते हैं। वे घर से बाहर जाकर पैसा कमाते हैं और श्रम की कठोरता और दबाव को, या बाजार और व्यावसायिकता की तकलीफ को झेलते हैं। महिलाएं कहीं अधिक ‘सुरक्षित’ माहौल में रहती हैं और उन्हें केवल घर संभालने और बच्चों के पालन-पोषण का काम ही करना होता है। इसलिए, जब बेचारे थके-हारे पुरुष घर से लौटते हैं, तो स्वाभाविक है कि उनकी देखभाल की जाती है, और उन्हें आराम करना पड़ता है।’

जीवन तेजी से बदल रहा है और पुरुष के पोषणकर्ता होने के बारे में बनी सबसे महत्वपूर्ण धारणा को लगातार तेज होती चुनौती मिल रही है। बदलावों की शुरुआत हमेशा की तरह समाज के शिक्षित संभ्रांत वर्ग की महिलाओं में शिक्षा से हुई। महिलाएँ शिक्षक, डॉक्टर, वकील आदि बनने लगीं। जब तक महिला, प्राथमिक विद्यालय की शिक्षिका जैसे ‘महिला-नुमा’ काम करके मामूली धन अर्जित कर रही थी, तब तक फिर भी पति उसे अपना वेतन जेब-ख़र्च की तरह खर्च करने देकर, स्वयं पोषणकर्ता होने का दम भर सकता था।’

लेकिन कई शहरी परिवारों में, महिलाएं अपने पति की तुलना में ज्यादा नहीं, तो बराबर तो कमा रही हैं। जिन घरों में ऐसा होता है, वहां दम्पत्ति के बीच बेहतर संतुलन और पारंपरिक पितृसत्तात्मक व्यवस्था से दुराव अधिक देखा गया है| परिवार सेटअप से अधिक प्रस्थान देखा है। शहरी मध्य वर्ग वाले सामाजिक समूह में मेरी रूचि नहीं है। लेकिन देश के बहुत से हिस्सों में, गरीब ग्रामीण परिवार अब कमोबेश ऐसी ही स्थिति का सामना कर रहे हैं।

काफी ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुष अभी भी पारंपरिक किसान हैं। उनकी आय, ज्यादा नहीं तो पहले जितनी ही, प्रकृति की अनिश्चितता और बाज़ार में मूल्यों के उतार-चढ़ाव निर्धारित होती है। उत्तर बिहार जैसे इलाकों में, पारिवारिक भूमि में विभाजन के चलते, पर्याप्त आय अर्जित करना लगातार कठिन से कठिनतर होता जा रहा है।

कमाने में कठिनाई

इस प्रकार, शुष्क भूमि वाले क्षेत्रों के साथ-साथ सुरक्षित कृषि क्षेत्रों के बड़े इलाकों में, पुरुषों को अपने परिवारों के भरण-पोषण और सहारा देने में अधिकाधिक कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। उम्मीदों और आकांक्षाओं की पूर्ती के लिए नकदी के बढ़ते उपयोग के कारण समस्या और अधिक बढ़ जाती है।

फिर भी उन्हें परिवार की जरूरतें पूरा करने वाले व्यक्ति की अपनी भूमिका निभानी पड़ती है। विदर्भ जैसे इलाकों में स्थिति सबसे मार्मिक है, जहां वास्तविक आय और धन की जरूरत के बीच के अंतर को पाटने की पितृसत्तात्मक भूमिका का निर्वाह अत्यधिक तनाव और आत्महत्याओं का कारण बन गया है। इन क्षेत्रों में, आर्थिक अवसरों की आमतौर पर कमी का अर्थ यह है कि महिलाएँ भी, उन सब गतिविधियों से जो वे कर सकती हैं, पर्याप्त आय अर्जित करने में सक्षम नहीं हैं।

कामकाजी महिलाएं

उपनगरीय क्षेत्रों सहित कई स्थानों पर, जहां महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से गरीबी-उन्मूलन कार्यक्रमों ने जड़ें जमाई हैं और सफलता पाई है, स्थिति पुरुषों के समान ही चुनौतीपूर्ण है और वहां दूसरी ही तरह की समस्याएं पेश आ रही हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में इस तरह के कार्यक्रमों के द्वारा, मुर्गी-पालन, सब्जी उगाने, और अन्य आजीविका सम्बन्धी गतिविधियों से महिलाओं की आय में काफी बढ़ोत्तरी हुई है।

उपनगरीय क्षेत्रों में, महिलाओं ने घरेलू काम के लिए नजदीकी शहरों में जाना शुरू कर दिया है, जिससे उन्हें टिकाऊ और ठीकठाक आय होने लगी है। ऐसे मामलों में, उनकी आय अक्सर उनके पति की आय से भी अधिक हो गई है। उनके पति न तो ज्यादा शिक्षित हैं, न ही उनके पास कोई ख़ास कौशल है। इसलिए वे या तो कम वेतन वाले काम करते हैं या आंशिक रूप से रोजगार पाते हैं या बेरोजगार रहते हैं।

बड़े शहरों के आसपास के गाँवों में, किसी टिकाऊ रोजगार के अभाव में युवकों का एक चाय की दुकान के आस-पास बैठना और पूरा दिन नहीं तो काफी समय साथ बिताते पाया जाना, असामान्य बात नहीं है। उनकी पत्नियां दूसरों के घरों में घर का काम करती हैं और वह पैसा जुटाती हैं, जिससे परिवार चलता है।

बेहतर स्थिति

लेकिन ये पुरूष बड़ी भौतिक इच्छाओं वाले लोग हैं। ये पुरुष अपने लिए मोबाइल और मोटरसाइकिल और वे छूट चाहते हैं, जो शायद उनके मेहनती, भरण-पोषण करने में सक्षम ‘पिताओं’ को प्राप्त थी। पितृसत्ता की तुलना में समृद्धि, अधिक तेजी से ख़त्म होती है। ये युवा पुरूष ऐसे दिखाना चाहते हैं, जैसे कि अभी भी अपने परिवारों के भरण-पोषण कर्ता, रक्षक और दंड देने वाले वही हैं। वे अपनी अति-श्रम से थकी हारी और कई बार कमजोर या गर्भवती पत्नियों से, शारीरिक रूप से मजबूत बने रहते हैं। उनके लिए, पत्नी के पास जो भी थोड़ा बहुत पैसे होते हैं, उसे झपट लेना और शराब या धूम्रपान पर ख़र्च कर देना मुश्किल नहीं है।

कभी-कभी ये लोग किसी स्थानीय गुंडे या राजनैतिक नेता की फौज का हिस्सा होते हैं, जो राजनीतिक क्षेत्र में अपनी ताकत का प्रदर्शन करना चाहता है। वो शायद कभी-कभार, इन डरपोक लोगों की वफ़ादारी हासिल करने के लिए, उनकी तरफ कुछ सौ रुपये फेंक देता है या शराब खरीद देता है।

लेकिन इन परिवारों में हो क्या रहा है? पितृसत्ता की पकड़ अभी भी बहुत मजबूत है| यहां तक ​​कि इन बेचारी महिलाओं को लगता ​​है कि उनके पति उनके ’धनी’ या ‘मालिक’ हैं। वे न तो खुले तौर पर अपनी आर्थिक शक्ति का दावा करती हैं और न ही पितृसत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती देती हैं।

नकदी की वास्तविकता 

लेकिन नकदी के प्रवाह की वास्तविकता महिलाओं के लिए आख़िर एक नई सुबह जरूर लेकर आएगी। यह कैसे प्रकट होती है? महिलाओं की नई आर्थिक शक्ति, पुरुषों के अहंकार और शारीरिक ताक़त से कैसे तालमेल बैठाती है या टकराती है? आखिरकार, हर किसी को वास्तविकता से सामंजस्य बैठाना पड़ता है।

ये लोग भरण-पोषण करने वाले व्यक्ति होने के ढोंग और आश्रित होने की वास्तविकता के बीच के स्पष्ट विरोधाभास को कैसे हल कर रहे हैं? क्या इससे उनमें भारी कुंठा पैदा हो रही है? क्या यह कुंठा ही घरेलू हिंसा के बढ़ते स्तर, यौन उत्पीड़नों और दूसरी तरह के घिनौने व्यवहार का मूल कारण है?

फिर इसका इलाज क्या है? क्या उन शिक्षित शहरी परिवारों ने, जहां महिलाओं ने अपनी बेहतर आय की क्षमता साबित की है, कोई सभ्य समाधान ढूँढा है? क्या शिक्षित शहरी परिवार, समस्याओं से घिरे इन ग्रामीण परिवारों के लिए प्रेरणा-श्रोत बन सकते हैं?

[यह लेख गौतम जॉन, अनीश कुमार और अनिर्बान घोष के साथ ‘लैंगिक भूमिकाओं पर उभरती चुनौतियों के बारे में पुरुषों की धारणा’ पर चर्चा का परिणाम है।]

संजीव फंसालकर “ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया फाउंडेशन” के साथ निकटता से जुड़े हैं। वह पहले ग्रामीण प्रबंधन संस्थान, आणंद (IRMA) में प्रोफेसर थे। फंसालकर भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM) अहमदाबाद से एक फेलो हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

यह लेख का English अनुवाद।

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