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Livelihoods

तटीय किसान, दमदार घास ‘खसखस’ से दौलत कमा रहे हैं

By कैथरीन गिलोन
Published January 28, 2020
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9 Min Read
तटीय क्षेत्रों में चंद्रशेखर जैसे किसान, मजबूत और बारहमासी खसखस घास की खेती करते हैं, जो कठिन मौसम को झेलने में सक्षम है और उससे अच्छी आमदनी होती है (छायाकार- बालासुब्रमण्यम एन.)
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चंद्रशेखर का खेत खारी हवा और लहरों की आवाज़ के बीच, बंगाल की खाड़ी के तट से सिर्फ 50 मीटर दूर है। पुदुचेरी के नरमाई गाँव के चंद्रशेखर (60) दो दशक से ज्यादा समय से यहाँ खेती कर रहे हैं।

पहले वे कैसुआरिना और नारियल के पेड़ उगाते थे। चंद्रशेखर बताते हैं – “कैसुआरिना के पेड़ हमें हर छह या सात साल में उपज देते हैं और इस तटीय क्षेत्र के लिए यह एक आम दृश्य है। लेकिन 2011 में, जब थाने चक्रवात आया, तो इसने पूरे बागान को बर्बाद कर दिया। हमारे पास कुछ नहीं बचा।”

यह वक्त था, जब उन्होंने खसखस या खस (Vetiveria zizanioides) के बारे में सुना, एक ऐसी बारहमासी भारतीय घास, जिससे लगभग आठ महीनों में ही फसल ली जा सकती थी। खोने के लिए चंद्रशेखर के पास कुछ भी नहीं बचा था, इसलिए उन्होंने खसखस की खेती शुरू कर दी और एक साल के भीतर प्रति एकड़ एक लाख रुपये से अधिक का लाभ कमाया।

पूर्वी तट के किनारे रहने वाले चंद्रशेखर जैसे बहुत से किसानों ने देखा कि खसखस में न केवल मिट्टी के खारेपन और विपरीत मौसम को झेलने की योग्यता है, बल्कि ये व्यावसायिक रूप से भी लाभदायक है।

कठोर घास

चंद्रशेखर ने VillageSquare.in को बताया – “निचले इलाके में होने के कारण, भारी बारिश के दौरान हमारे खेत में अक्सर पानी भर जाता है। खसखस घास बाढ़ को झेलने में सक्षम है। समुद्र का पानी मिल जाने से खारे हुए पानी में भी खसखस अच्छी पैदावार देती है। हमारे तटीय भूमि जैसे हालात के लिए खसखस सबसे अच्छा उपाय है।”

पड़ोसी कुड्डालोर जिले में किसानों को भी ऐसी ही स्थिति का सामना करना पड़ रहा है, जहाँ तट की लगातार बढ़ती लवणता (खारापन) के कारण फसलों का बचना मुश्किल हो जाता है। पहले इस जिले में खसखस की खेती करने वाले कुछ ही किसान थे| यह पिछले केवल पांच वर्षों में ही हुआ है कि पूर्वी तट के किसानों ने बड़े पैमाने पर खसखस की खेती को अपनाया।

जलवायु-निरोधक फसल

कुड्डलोर जिले के नोचिकाडु के एक किसान भाग्यराज (23) याद करते हैं कि 2004 की हिंद महासागर सुनामी में उनकी फसल कैसे बच गई थी। उस समय, उनके पिता के पास काजू और कासुआरिना के पेड़ थे और उन्होंने अपने 20 एकड़ के खेत में केवल दो एकड़ में ही खसखस की बुआई की थी।

भाग्यराज ने VillageSquare.in को बताया – “मुझे याद है कि कैसे सब कुछ खत्म हो गया या बह गया था और कैसे सुनामी के बाद काली पड़ गई खसखस घास ताजा पानी देने के कुछ ही दिनों के अंदर एकदम ताज़ा हो गई थी।”

किसान भाग्यराज ने 2004 में आई सुनामी में कसुआरिना और काजू को बर्बाद होते और खसखस को बचते देख खसखस की खेती की ओर रुख किया (छायाकार- बालासुब्रमण्यम एन.)

सुब्रमण्यपुरम के एक युवा कृषि उद्यमी, प्रसन्ना कुमार (25) के अनुसार, कुछ साल पहले, किसान अपनी जमीनें कारखानों को बेचने लगे थे, क्योंकि वे कुछ भी उगा नहीं पा रहे थे। तूफान और बाढ़ जैसी निरंतर बढ़ती मौसम की विसंगतियों के कारण खेत, कूड़े के मैदान में बदल रहे थे।

प्रसन्ना कुमार VillageSquare.in को बताते हैं – “जब उन्होंने महसूस किया कि मौसम की मार वाली इन परिस्थितियों से जूझते हुए भी, खसखस थोड़े समय में लाभदायक हो सकता है, तो बहुत से किसानों ने अपनी भूमि बेचने और पलायन करने की बजाय इसकी खेती शुरू कर दी|”

नए बाजार

भाग्यराज के पिता ने खसखस की खेती का क्षेत्र 2 एकड़ से बढ़ाकर 5 एकड़ कर दिया। उन्होंने कहा – “जब इत्र उद्योग में बढ़ोतरी हुई, तो खसखस की जड़ों से बने तेल की मांग बढ़ गई, और मैंने अपने पिता को सभी 20 एकड़ में खसखस की खेती करने के लिए राजी कर लिया।” इससे उन्हें एक के बाद एक फसल में लगभग 2 लाख रुपये प्रति एकड़ की आमदनी हुई।

आमतौर पर, यहां के किसान खसखस की जड़ें, पारंपरिक दवाइयां बेचने वाले, नत्तू मारुंधु कडाई के भंडारों को बेचते थे। अब मरुधाम जैसी स्टार्ट-अप कंपनियों ने देश भर में, तेजी से बढ़ते इत्र और हस्तशिल्प उद्योग को ध्यान में रखकर, खसखस के लिए स्थानीय बाजार खोल दिया है, जिससे किसानों को बेहतर आय होती है।

महिलाओं के लिए आजीविका

इस तटीय जिले में, पुंगोथाई (40) जैसी ग्रामीण महिलाओं के लिए भी खसखस एक वरदान बन गया है, जो एक स्थानीय स्व-सहायता समूह में काम करती है और खसखस से हार, योग के लिए चटाई, लैपटॉप बैग, बर्तन मांजने वाला स्क्रब, आदि वस्तुएं बनाती है। पिछले पांच वर्षों में, कुड्डालोर खसखस और इससे बने उत्पादों का एक प्रमुख केंद्र बन गया है।

पुंगोथाई ने VillageSquare.in को बताया – “मैं एक गृहिणी थी, लेकिन पिछले साल, आसपास के गाँवों की मुझ जैसी महिलाओं ने मिलकर खसखस का सामान बनाना और स्थानीय हस्तशिल्प उद्योग को बेचना शुरू कर दिया। मैं तब से 6,000 रुपये महीना कमा रही हूं। यह इकाई हमारे घरों के नज़दीक है, जिससे हमें अपने परिवार के लिए अतिरिक्त आय अर्जित करने में मदद मिलती है।”

पर्यावरण सम्बन्धी उपयोग

कुड्डालोर के किसान डी. अम्बरासन (25) ने कहा कि पर्यावरणीय उद्देश्यों के लिए पूरे राज्य में खसखस टिलर की मांग है। वह कहते हैं – “गंभीर सूखे के बाद, पूरे तमिलनाडु में जलाशयों को पुनर्जीवित करने के प्रयास हो रहे हैं। हम पर्यावरणविदों को खसखस की डालियों की आपूर्ती करते हैं, जो मेंढ़ को मजबूत बनाने के लिए उन्हें जलाशयों के चारों ओर लगाते हैं।”

खसखस के शिल्प से ग्रामीण महिलाओं को अपने परिवार के लिए अतिरिक्त आय अर्जित करने में मदद मिलती है (छायाकार-बालासुब्रमण्यम एन.)

अम्बरासन ने VillageSquare.in को बताया – “मिट्टी के कटाव को रोकने के अलावा, खसखस की मोटी जड़ों का उपयोग फाइटोरेमेडिएशन में भी किया जाता है, जो पानी और मिट्टी से लगे दूषित पदार्थों को निकालने की एक प्रक्रिया है। खसखस का यह एक और उपयोग है, जिसने हाल ही में बहुत ध्यान आकर्षित किया है|”

हाल ही में, अम्बरासन ने एक डेरी फर्म को उनके कचरा-शोधन के लिए खसखस टिलर की आपूर्ति की। अर्थशास्त्र जैसे प्राचीन ग्रंथों में किये गए उल्लेख से पता चलता है कि भारत में प्राचीन काल से खसखस का उपयोग, कुओं और जलाशयों को साफ करने के लिए किया जाता रहा है।

अति (अधिक) – आपूर्ति

नोचिकाडू के एक किसान, सैंथुर गुगन (26) ने कहा कि खसखस की इस नाव में सरकार भी सवार हो गई और स्थानीय पंचायतों के माध्यम से मुफ्त खसखस टिलर देकर सहायता करने लगी। इसके कारण, कुडलोर में खसखस की खेती का क्षेत्र 100 एकड़ से बढ़कर 700 एकड़ हो गया।

इस साल बाजार में मंदी के चलते किसानों को खसखस के सामान्य दाम नहीं मिल पाए हैं। सैंथुर गुगन ने VillageSqaure.in को बताया, “अगर सरकार हमसे खरीद का निर्णय लेती है तो बेहतर होगा, क्योंकि निजी क्षेत्र के लिए इतनी उपज की खपत करना मुश्किल होगा।”

व्यापारियों ने बताया कि स्थानीय फसलों की तुलना में आयात की गई खसखस सस्ती पड़ती है, इसलिए भारतीय कंपनियां, पर्याप्त और बेहतर गुणवत्ता की उपज की उपलब्धता के बावजूद इसका आयात कर रही हैं। चंद्रशेखर ने कहा, “अगर किसानों के लिए बिक्री मूल्य निर्धारित हो जाए, तो संभवतः इससे मदद मिलेगी।”

तटीय किसानों ने प्रकृति से मिली विभिन्न चुनौतियों के साथ जीना सीख लिया है, लेकिन बाजार की अस्थिरता अभी भी नए जुड़ने वाले किसानों के लिए एक बाधा है। चंद्रशेखर जैसे पुराने लोगों का विश्वास अभी भी अटूट है – “अगला साल बेहतर होगा।” 

कैथरीन गिलोन चेन्नई स्थित एक पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

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